Tuesday, July 10, 2012

हिन्दी सिनेमा के सौ साल और हिन्दी


नई दिल्ली। कभी देश के कोने कोने में हिन्दी के विस्तार का श्रेय हिन्दी फिल्मों को दिया जाता था लेकिन बदलते वक्त में नए अंग्रेजी पसंद करने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए अब हिन्दी फिल्मों में संवाद रोमन में लिखे जाने लगे ताकि वे आसानी से उसे पढ सकें। इसके अलावा क्रेडिट लाइन और प्रचार सामग्री तो रोमन में ही प्रदर्शित की जाती है।
मशहूर निर्माता निर्देशक बासु भट्टाचार्य ने कहा था, हिन्दी का सौभाग्य है कि वह देश के कोने कोने में बोली जाती है लेकिन यह दुर्भाग्य है कि भारत के किसी भूभाग में वह अपनी आत्मीयता स्थापित नहीं कर पाई है। जिन प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाएं फल फूल रही है, उन क्षेत्रों में किसी को हिन्दी की ओर नजार उठाकर देखने की भी फुरसत नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे अपने बल पर खड़ा होना होगा।
त्रिलोक जैतली ने गोदान के निर्माता निर्देशक के रूप में जिस प्रकार आर्थिक नुकसान का ख्याल किए बिना प्रेमचंद की आत्मा को सामने रखा, वह आज भी आदर्श है। गोदान के बाद ही साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसी श्रृंखला में शतरंज के खिलाड़ी भी ऐसी ही एक फिल्म थी।
फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी मारे गए गुलफाम पर आधारित फिल्म तीसरी कसम हिन्दी सिनेमा में कथानक और अभिव्यक्ति का सशक्त उदाहरण है। ऐसी फिल्मों में बदनाम बस्ती, अषाढ़ का दिन, सूरज का सातवां घोड़ा, एक था चंदर.एक थी सुधा, सत्ताइस डाउन, रजनीगंधा, सारा आकाश भी शामिल है।
फिल्म समीक्षक हसनैन साजिद रिजवी ने कहा कि फिल्म जगत में एक वर्ग का आज भी दावा है कि हिन्दी फिल्मों ने हिन्दी की जो सेवा की, उसके प्रचार प्रसार में जो योगदान दिया, उसे नजरंदाज करना मुमकिन नहीं। देश के कोने कोने में आज हिन्दी का जो विस्तार दिखाई दे रहा है, उसके पीछे हमारी फिल्में ही हैं।
हसनैन ने कहा कि दूसरा पक्ष यह पूछ बैठता है कि हिन्दी भाषा के इतने दर्शकअगर नहीं मिलते तब क्या हिन्दी में इतनी फिल्मों को निर्माण होता। हिन्दी तब से बोली जाती हैं जब फिल्मों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। भाषा के साथ फिल्मों का कोई खास संबंध नहीं होता है, आज भी लोग मगन होकर सत्यजित राय और मृणाल सेन की फिल्में देखते हैं। लेकिन इन फिल्मों को देखने से कोई बंगला भाषा में प्रवीण नहीं हो जाता है।
उन्होंने ने कहा कि आज काफी संख्या में ऐसे अभिनेता-अभिनेत्रियां हैं जो दूसरे मुल्कों और परिवेश से आकर बॉलीवुड में काम कर रही हैं। कट्रीना कैफ, काल्की कोचलिन, जैकलिन फनाडिस, सन्नी लियोन, लिजा रे, जरीन खान, जिया खान, फ्रीडा पिंटो आदि दूसरे देश से आई हैं लेकिन काफी हिन्दी फिल्मों में काम कर रही है। हिन्दी फिल्मों की स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि ऐसे कलाकारों के लिए हिन्दी फिल्मों में प्रयोग में आने वाले संवाद अब रोमन में लिखे जाते हैं। क्रेडिट टाइटल और प्रचार सामग्री भी अंग्रेजी में होती है। देवदास, बन्दिनी, सुजाता और परख जैसी फिल्में उस समय बाक्स आफिस पर उतनी सफल नहीं रहने के बावजूद फिल्मों के भारतीय इतिहास के नए युग की प्रवर्तक मानी जाती हैं।
आज लोगों को धरती के लाल और नीचा नगर जैसी फिल्मों का इंतजार है जिसके माध्यम से दर्शकों को खुली हवा का स्पर्श मिले और अपनी माटी की सोंधी सुगन्ध, मुल्क की समस्याओं एवं विभीषिकाओं का आभास हो।


हिन्दी सिनेमा आज से ठीक 99 साल पहले मूक फिल्मों के साथ शुरू हुई थी और आज उसका यह सफर थ्री डी फिल्मों तक जा पहुंचा है. इस सौ सालों में हिन्दी सिनेमा इंडस्ट्री ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, कई को बनता तो कई को बिगड़ता हुआ देखा है. हिन्दी सिनेमा का सफर किसी भी लिहाज से आसान नहीं कहा जा सकता. यह सफर बहुत ही परेशानियों से भरा रहा है. लेकिन तमाम परेशानियों को मिटाकर हिन्दी सिनेमा ने हमेशा आगे की तरफ ही कदम बढ़ाए हैं. हां, यह जरूर है कि ज्यादा आगे जाने के चक्कर में हिन्दी सिनेमा सही और गलत के बीच की दीवार को भी कई बार लांघता हुआ देखा गया. हालांकि सौ साल पूरे होने की खुशी में चलिए सभी गम भुलाकर याद करें हिन्दी सिनेमा के पिछले 99 सालों के सफर को.
फिर लौट आए हैं बैडमैन
21 अप्रैल 2013
99 साल पहले दादा साहब फालके ने 1913 में राजा हरिश्चंद्र की फिल्म बनाई थी, एक ऐसा राजा जो कभी झूठ नहीं बोलता था, जरूरत पड़ने पर भी झूठ का सहारा नहीं लेता था. यह एक मूक फिल्म थी. वर्तमान में सैंकड़ों फिल्में विभिन्न भाषाओं में बन चुकी हैं. हम हिंदी सिनेमा की सदी की ओर कदम रख चुके हैं और 21 अप्रैल, 2013 में हिंदी सिनेमा अपने 100 वर्ष पूरे कर लेगा.
सफर बिन बोलती फिल्मों से लेकर रंगीन सिनेमा तक का
राजा हरिश्चंद्र मई 1913 में तैयार हुई थी. फिल्म बहुत जल्दी भारत में लोकप्रिय हो गई और 1930 तक लगभग 200 फिल्में भारत में बन रही थीं. दादा साहब फालके द्वारा बनाई गई यह फिल्म 1914 में लंदन में दिखाई गई. पहली बोलती फिल्म थी अरदेशिर ईरानी द्वारा बनाई गई आलम आरा. इस फिल्म को दर्शकों की खूब प्रशंसा मिली और इसके बाद सभी बोलती फिल्में बनीं. इसके बाद देश विभाजन जैसी ऐतिहासिक घटनाएं हुर्ई. उस समय बनीं हिंदी फिल्मों पर इसका प्रभाव छाया रहा.
फिल्मों का विषय
1950 से हिंदी फिल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हो गईं. उस दौर में फिल्मों का विषय प्रेम होता था और गाने फिल्म का महत्वपूर्ण अंग बन गए थे. इस तरह 1960-70 के दशक में फिल्मों में हिंसाका प्रभाव रहा. 1980-90 के दशक में दोबारा प्रेम पर आधारित फिल्में दर्शकों के बीच लोकप्रिय हुर्ईं. वर्ष 1990 के बाद बनीं फिल्में भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी चर्चा में रहीं. विदेशों में हिंदी फिल्मों के चर्चा में रहने का मुख्य कारण प्रवासी भारतीय थे और फिल्मों में भी प्रवासी भारतीयों को दिखाया जाता था. आज के समय में फिल्मों का विषय बेहद फैल चुका है. समाज के हर पहलू पर आपको सिनेमा जगत में फिल्में देखने को मिलेंगी. हां आज वास्तविकता और मनोरंजन के नाम पर फूहड़पन बेचने का एक नया कारोबार जरूर शुरू हुआ है जिसका सपना शायद दादा साहब फाल्के ने नहीं देखा था.
दो शब्द सिनेमा के पितामह के नाम
दादा साहब फाल्के को भारतीय सिनेमा का पितामह कहा जाता है. दादा साहब फाल्के सर जेजे स्कूल ऑर्फ आर्ट्स के प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे. वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे और शौकिया जादूगर. वह प्रिटिंग के कारोबार में थे. 1910 में उनके एक साझेदार ने उनसे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया. कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया. उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर ईसामसीह पर बनीं एक फिल्म देखी. फिल्म देखने के दौरान ही उन्होंने निर्णय किया कि उन्हें एक फिल्मकार बनना है. उसके बाद से उन्होंने फिल्मों पर अध्ययन और विश्लेषण करना शुरू कर दिया. फिल्मकार बनने के इसी जुनून को साथ लिए वह 1912 में फिल्म प्रोडक्शन में क्रैश कोर्स करने के लिए इंग्लैंड चले गए और हेपवर्थ के अधीन काम करना सीखा और इसके बाद उन्होंने अपने ज्ञान से भारत को सिनेमामय बना दिया.

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